Saturday 4 January 2020

*नज़रिया: ‘आरक्षित सीटों से आने वाले नेता निकम्मे साबित हुए हैं’*

*Part-1*

*संसद और विधानसभाओं में आरक्षित सीटों की वजह से चुनकर आने वाले लगभग बारह सौ जनप्रतिनिधियों ने* अपने समुदाय को लगातार निराश किया है. दलित और आदिवासी हितों के सवाल उठाने में ये जनप्रतिनिधि बेहद निकम्मे साबित हुए हैं.

लेकिन इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है उनका ऐसा करना एक संरचनात्मक मजबूरी है *क्योंकि उनका चुना जाना उनके अपने समुदाय के वोटों पर निर्भर ही नहीं है.*

मिसाल के तौर पर *जिग्नेश मेवानी वडगाम सीट पर 15 प्रतिशत दलित वोटर की वजह से नहीं, 85 प्रतिशत ग़ैर-दलित वोटरों के समर्थन से चुने गए हैं.*

*उस सीट के सारे दलित मिलकर भी कभी किसी को जिता नहीं सकते.*

*सुरक्षित सीटों पर कोई भी ऐसा जनप्रतिनिधि चुनकर नहीं आ सकता,* जो दलित या आदिवासी हितों के लिए आक्रामक तरीके से संघर्ष करता हो, और ऐसा करने के क्रम में अन्य समुदायों को नाराज़ करता हो. *रिज़र्व सीटें हमेशा दुर्बल जनप्रतिनिधि ही पैदा कर सकती हैं.*

*संसद और विधानसभा में सीटों के रिज़र्वेशन की व्यवस्था पर सवाल उठाने का समय आ गया है.*

बेहतर होगा कि ये *सवाल ख़ुद अनुसूचित जाति और जनजाति के अंदर से आएं.* इस सवाल पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.

*समुदाय के लिए करते क्या हैं?*

2009 में भारतीय संसद ने हर दस साल पर होने वाली एक औपचारिकता फिर निभाई. *वही औपचारिकता, अगर कोई ग़ज़ब न हुआ तो, 2019 में फिर निभाई जाएगी.*

*हर दस साल पर, संसद एक संविधान संशोधन विधेयक पारित करती है, जिसके तहत लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसुचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ा दिया जाता है और फिर राष्ट्रपति इस विधेयक को अनुमोदित करते हैं. संविधान का अनुच्छेद 334, हर दस साल पर दस और साल जुड़कर बदल जाता है.*

*इसी प्रावधान की वजह से लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व हो जाती हैं. वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजाति के लिए सुरक्षित हो जाती हैं.*

*इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है.*

लोकसभा और विधानसभाओं में *आज़ादी के समय से ही* अनुसूचित जाति और जनजाति का उनकी *आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व रहा है.*

*सवाल यह उठता है कि इतने सारे दलित और आदिवासी सांसद और विधायक अपने समुदाय के लिए करते क्या हैं?*

नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के इस साल जारी आंकड़ों के मुताबिक *इन समुदायों के उत्पीड़न के साल में 40,000 से ज़्यादा मुकदमे दर्ज हुए.* यह आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है. जाहिर है कि *इन आंकड़ों के पीछे एक और आंकड़ा उन मामलों का होगा, जो कभी दर्ज ही नहीं होते हैं.*

*क्या दलित उत्पीड़न की इन घटनाओं के ख़िलाफ़ दलित सांसदों या विधायकों ने कोई बड़ा, याद रहने वाला आंदोलन किया है?*

*ऐसे सवालों पर, संसद कितने बार ठप की गई है और ऐसा रिज़र्व कैटेगरी के सांसदों ने कितनी बार किया है?*

हमने देखा है कि तेलंगाना से आने वाले *दसेक सांसदों ने कई हफ़्ते तक संसद की गतिविधियों को बाधित रखा.*

*कोई वजह नहीं है कि लगभग सवा सौ एससी और एसटी सांसद अगर चाह लें तो संसद में इससे कई गुना ज़्यादा असर पैदा कर सकते हैं.* लेकिन भारतीय संसद के इतिहास में ऐसा कभी हुआ नहीं है.

इसी तरह, *सरकारी नौकरियों और शिक्षा में अनुसूचित जाति और जनजाति को आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है*

लेकिन *केंद्र और राज्य सरकारें अक्सर यह सूचना देती हैं कि इन जगहों पर कोटा पूरा नहीं हो रहा है.*

*ख़ासतौर पर उच्च पदों पर, अनुसूचित जाति और जनजाति के कोटे का हाल बेहद बुरा है.* जैसे कि हम देख सकते हैं कि *देश की 43 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में एक भी वाइस चांसलर अनुसूचित जाति का नहीं है या कि केंद्र सरकार में सेक्रेटरी स्तर के पदों पर अक्सर एससी या एसटी का कोई अफसर नहीं होता.*

*शासन के उच्च स्तरों पर अनुसूचित जाति और जनजाति की अनुपस्थिति क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों के लिए चिंता का विषय है?* अगर वे इसके लिए चिंतित हैं, तो उन्होंने सरकार पर कितना दबाव बनाया है? *क्या इस सवाल पर कभी संसद के अंदर कोई बड़ा आंदोलन या हंगामा हुआ?* ज़ाहिर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ.

चूंकि सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घट रही है और हाल के वर्षों में *निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठी है,*

*लेकिन क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों और विधायकों के लिए यह कोई मुद्दा है?*

इसी तरह की एक मांग *उच्च न्यायपालिका में आरक्षण की भी है. ख़ासकर संसद की कड़िया मुंडा कमेटी की रिपोर्ट में न्यायपालिका में सवर्ण वर्चस्व की बात आने के बाद से यह मांग मज़बूत हुई है. लेकिन क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों ने कभी इस मुद्दे पर संसद में पुरज़ोर तरीक़े से मांग उठाई है?*

*120 से ज़्यादा एससी और एसटी सांसदों के लिए किसी मुद्दे पर संसद में हंगामा करना और दबाव पैदा करना मुश्किल नहीं है. इन सांसदों का एक ग्रुप भी है और जो अक्सर मिलते भी हैं लेकिन देश ने कभी इन सांसदों को अपने समुदायों के ज़रूरी मुद्दों पर आंदोलन छेड़ते नहीं देखा है.*

http://www.bbc.com/hindi/india-42455275

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sir Manohar barkade ji ki wall se मूलनिवासी इतिहास *ये है भारत का असली इतिहासl बाकि सब झूठ हैl* इस पोस्ट के अन्दर दबे हुए इतिहास के प...