नमो बुद्धस्स जय भीम
🐘 जय बहुजन समाज 🐘
🔅 *अशोक विजयदशमी विशेष* 🔅
*सम्राट अशोक*
राजकाल- ३०४ ईसा पूर्व से २३२ ईसा पूर्व।
राज्याभिषेक- २७० ईसा पूर्व।
*जन्म*- ३०४ ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र, पटना।
*मृत्यु*- २३२ ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र, पटना।
*उत्तराधिकारी*-दशरथ मौर्य।
*पत्नी*- देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी)
कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता)।
असंधिमित्रा अग्रमहिषी,
अहंकारा ,
पद्मावती
तिष्यरक्षिता
*वंश*- मौर्य
*पिता*- बिन्दुसार
*माता*- सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा)
------------------------
चक्रवर्ती सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय)। (राजकाल ईसापूर्व 273-232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का चक्रवर्ती राजा था। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है।[1][2]
जीवन के उत्तरार्ध में सम्राट अशोक भगवान बुद्ध की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृति मे उन्होने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - मे मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्तम्भ के रुप मे देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक अपने पूरे जीवन मे एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक के ही समय में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे।
*कलिंग की लड़ाई*
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष (२६१ ई. पू.) में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत् अभिषेक हुआ तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया। उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उसने युद्धक्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ। उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया।
सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्चात् मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था। दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त घोषित कर दिया था।
*बौद्ध धर्म अंगीकरण*
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उसका मन युद्ध से ऊब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठा। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उसने उसे अपने जीवन मे उतारने का प्रयास भी किया। उसने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उसने चिकित्यालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया।
उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी।
अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया।
अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-
(क) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ,
(ख) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति,
(ग) धर्म महापात्रों की नियुक्ति,
(घ) दिव्य रूपों का प्रदर्शन,
(च) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था,
(छ) लोकाचारिता के कार्य,
(ज) धर्मलिपियों का खुदवाना,
(झ) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया। वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।
विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है।
अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।"
*शिलालेख*
सम्राट अशोक द्वारा प्रवर्तित कुल ३३ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफ़ाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं।
इन शिलालेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इनमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर ज़ोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मगधी भाषा में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत से मिलती-जुलती है और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अपने आप को "प्रियदर्शी" (प्राकृत में "पियदस्सी") और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में "देवानम्पिय") की उपाधि से बुलाते हैं।
*मृत्यु*
अशोक ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया जिसके बाद लगभग 234 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हुई। उसके कई संतान तथा पत्नियां थीं पर उनके बारे में अधिक पता नहीं है। उसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया।
अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 50 वर्षों तक चला।
मगध तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कई जगहों पर उसके अवशेष मिले हैं। पटना (पाटलिपुत्र) के पास कुम्हरार में अशोककालीन अवशेष मिले हैं। लुम्बिनी में भी अशोक स्तंभ देखा जा सकता है। कर्नाटक के कई स्थानों पर उसके धर्मोपदेशों के शिलोत्कीर्ण अभिलेख मिले हैं।
🐘 जय बहुजन समाज 🐘
🔅 *अशोक विजयदशमी विशेष* 🔅
*सम्राट अशोक*
राजकाल- ३०४ ईसा पूर्व से २३२ ईसा पूर्व।
राज्याभिषेक- २७० ईसा पूर्व।
*जन्म*- ३०४ ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र, पटना।
*मृत्यु*- २३२ ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र, पटना।
*उत्तराधिकारी*-दशरथ मौर्य।
*पत्नी*- देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी)
कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता)।
असंधिमित्रा अग्रमहिषी,
अहंकारा ,
पद्मावती
तिष्यरक्षिता
*वंश*- मौर्य
*पिता*- बिन्दुसार
*माता*- सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा)
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चक्रवर्ती सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय)। (राजकाल ईसापूर्व 273-232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का चक्रवर्ती राजा था। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है।[1][2]
जीवन के उत्तरार्ध में सम्राट अशोक भगवान बुद्ध की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृति मे उन्होने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - मे मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्तम्भ के रुप मे देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक अपने पूरे जीवन मे एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक के ही समय में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे।
*कलिंग की लड़ाई*
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष (२६१ ई. पू.) में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत् अभिषेक हुआ तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया। उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उसने युद्धक्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ। उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया।
सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्चात् मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था। दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त घोषित कर दिया था।
*बौद्ध धर्म अंगीकरण*
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उसका मन युद्ध से ऊब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठा। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आता गया और अंत में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उसने उसे अपने जीवन मे उतारने का प्रयास भी किया। उसने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उसने ब्राह्मणों एवं अन्य सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। और जनकल्याण के लिए उसने चिकित्यालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया।
उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी।
अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा भी सम्मिलित थे, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया।
अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-
(क) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ,
(ख) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति,
(ग) धर्म महापात्रों की नियुक्ति,
(घ) दिव्य रूपों का प्रदर्शन,
(च) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था,
(छ) लोकाचारिता के कार्य,
(ज) धर्मलिपियों का खुदवाना,
(झ) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया। वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।
विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है।
अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।"
*शिलालेख*
सम्राट अशोक द्वारा प्रवर्तित कुल ३३ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफ़ाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं।
इन शिलालेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इनमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर ज़ोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मगधी भाषा में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत से मिलती-जुलती है और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अपने आप को "प्रियदर्शी" (प्राकृत में "पियदस्सी") और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में "देवानम्पिय") की उपाधि से बुलाते हैं।
*मृत्यु*
अशोक ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया जिसके बाद लगभग 234 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हुई। उसके कई संतान तथा पत्नियां थीं पर उनके बारे में अधिक पता नहीं है। उसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया।
अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 50 वर्षों तक चला।
मगध तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कई जगहों पर उसके अवशेष मिले हैं। पटना (पाटलिपुत्र) के पास कुम्हरार में अशोककालीन अवशेष मिले हैं। लुम्बिनी में भी अशोक स्तंभ देखा जा सकता है। कर्नाटक के कई स्थानों पर उसके धर्मोपदेशों के शिलोत्कीर्ण अभिलेख मिले हैं।
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